बसंत की सुगन्धित बयार थे तुम,
तपती धुप में भीनी फुहार थे तुम,
अनगिन छात्रों का प्यार थे तुम,
इस परिसर का उपहार थे तुम,
प्रिय मित्रों का परिवार थे तुम,
प्रज्ञा-प्रवाह का संसार थे तुम |
—
गुरु का कर्त्तव्य निभाया तुमने,
तुमसे ज्ञान रहे, विज्ञान रहे,
साहित्य रहा, संस्कृति रही ,
तुमसे नए-नए अनुसंधान रहे,
तुम शिक्षा का सोपान रहे,
इस संस्थान का तुम अभिमान रहे |
—
तुम बाधाओं से ना घबराते थे,
चुनौतियों को हंसकर गले लगाते थे
क्या अपना-पराया, क्या छोटा-बड़ा,
बस सबको अपना बनाते थे,
दिख सकी न शिकन कभी तुझमे,
कर्मठ बनकर जीना सिखाते थे |
—
पर समीर को क्या कोई बाँध सका,
उसके वेग को क्या कोई नाप सका?
जब नप गयी थी सारी धरती,
आत्मा ये जमीं पर क्या करती ?
बस एक झपकी पलक,
और तुम सब छोड़ गए |
कुछ कहा नहीं, कुछ सुना नहीं,
एक पल में नाता तोड़ गए |
—
खैर, एक सीख दी जाते-जाते भी,
ना जाने कभी ये समझ पाते भी,
ये तन मिटटी का पुतला है,
क्या खोना है, क्या पाना है ?
ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है ,
बस अविरल चलते ही जाना है |
—
तुम जहाँ रहो, वहां प्रसन्न रहो
इतना बस हमारा अधिकार रहे,
कि जब तक यह संस्थान रहे,
तेरी वो बसंती बयार रहे |
- राजेश रंजन ‘आर्य’
- (दिसम्बर २६, २०२३ )