कभी कचोटता है
मन का वो एकाकीपन
और चढ़ने लगती है
माया की परत धीरे-२
बंधने लगती हैं आँखों पे पट्टियाँ
और मैं अनजाने ही पहुँच जाता हूँ
उस घने अन्धकार में |
फिर सामने पड़ी वो देव- प्रतिमाएं
कोने में रखा वो गंगा जल
और चीख-२ कर नैतिकता का उपदेश देते
वो तमाम – धर्मग्रंथ
ये सब मिलकर भी,
शांत नहीं कर पाते
मेरी वो तीव्र तृष्णा,
वो पाश्विक वासना |
तभी नजर आती है
सदियों से मेरे पास पड़ी,
वो डायरी
और उनके पन्नों के बीच से झांकती
सूखे गुलाब की वो पंखुड़ी
और मैं अचानक सिहर उठता हूँ
जाने किस भय से |
तड़प उठता हूँ,
कोसने लगता हूँ, पीटने लगता हूँ
अपने आप को,
अपनी आत्मा को |
फिर अचानक से फट जाती है
वो मोटी अँधेरे की परत
और मैं साफ़-२ देखने लगता हूँ
माया को और यथार्थ को |
‘सुधी’,
वो क्या है तुम्हारे उस प्रेम में,
जो मिटने नहीं देता मुझे,
कि मैं इतना गिरने के बाद भी
‘देवता’ ही कहलाता हूँ ?
(उस सुधी के नाम, जिसने चंदर को ‘गुनाहों का देवता’ बना दिया!)
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कोशिश जीवन-पथ पर चलने की
और ये सूजन मेरे ‘पैरों’ में,
आ जाओ पीड़ा बस जाओ
है आँखें खुली अब सहरों में |
लम्हे अब कैसे छीनोगे
हर सांस को अब मैं जीता हूँ,
तुम कहते थे न मैं संगदिल हूँ
देखो मैं तन्हाई से रीता हूँ |
मैं पड़ा सुनता ही रहता हूँ,
इस ख़ामोशी का चिल्लाना
है जुगत बड़ी इन लंगड़े-बहरों में,
ये सूजन मेरे ‘पैरों’ में |
कल आँखें पूछ रही थी मुझसे
क्या तुम्हे वो चेहरा याद है ?
मैं क्या कहता, उत्तर देता
अंधों की भी कोई फ़रियाद है ?
पर रुक न सका उसका बहना
कोई तो दौड़ो, उसे पकड़ो
कुछ यादें बही है इन लहरों में,
ये सूजन मेरे ‘पैरों’ में |
फिर यूँ ही बिस्तर पे पड़े-पड़े
इक रोज ये उलझा अपना मन
हैं शीत, ग्रीष्म और पतझड़ भी
क्यों मैंने याद रखा बस सावन ?
खैर! पूछा उसने मुझसे, उस सावन में
कहो कितनी बांटी खुशियाँ या बंटाया ग़म
और मैं मूक खड़ा था कटहरों में,
ये सूजन मेरे ‘पैरों’ में |
तन्हाई ने दोस्त दिए कितने
बस ये पेट बड़ा पापी ठहरा,
कहता न मैं कुछ समझता हूँ
तू भले हो मूक, लंगड़ा, अँधा, बहरा
रोज ठीक समय पर उसकी जिद
कुछ पड़े-२ मिल जाने की ख्वाहिश
माँ याद तू बड़ी आती है दुपहरों में,
ये सूजन मेरे ‘पैरों’ में |
~ राजेश ‘आर्य’
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यूँ ही इन हवाओं से लड़ते – झगड़ते,
कभी पानी में पत्थरों को फेंकते,
कभी यूँ ही अकेले पेड़ों की छांह में बैठकर,
या छत पर बादलों को घूरते
इन बिखरे – उलझे बालों में,
या बेमतलब ख्यालों में
कभी अधूरे सपनों को गिनते,
या नए सपनों को बिनते
कभी कुछ यूँ ही मन सोच कर,
या किसी भूले को याद कर,
उनींद सा बिस्तर पर पड़ा हुआ,
या अपने आप से लड़ा हुआ
नया पात्र गढ़ने की कोशिश में ,
याकि किसी परिभाषा में उलझा हुआ,
हर शाम अनजाने सी कसक
हर सुबह आँखें मलता हुआ,
हर रोज किसी अप्रत्याशित सच के इंतज़ार में
मैं जो इन बिखरे-२ लम्हों को सील रहा हूँ,
कुछ लोग इसे ज़िन्दगी कहते हैं |
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एक अकेली नाव,
बही जा रही है-
गहरे समुद्र में
चारों ओर,
पानी ही पानी |
कोई साथ नहीं,
किनारे का भी ,
कोई पता नहीं
दूर-दूर तक |
एक पत्ती आई है,
कहीं से उड़ते हुए,
और आकर बैठ गयी है,
उसी नाव में |
नाव खुश है,
उसके साथ कोई है |
और उससे भी अधिक,
खुशी है उसकी आत्मा में
कि वो मदद कर रहा है,
उस पत्ती की,
उसे किनारे तक पहुँचाने में,
उसे पानी में डूबने से बचाने में |
तेज आँधी चली है,
नाव ने संभाल लिया है,
अपने को,
पर पत्ती उड़ चली है,
दूर और दूर |
नाव ने अपनी गति बढ़ा ली है,
बिना खुद के उलटने की परवाह किए |
एक ही लक्ष्य है,
कि वो संभाल ले,
वो डूबने न दे,
उस पत्ती को,
गहरे रसातल में |
वो देख रहा है बहुत दूर से,
पत्ती उड़कर सुरक्षित पहुँच गयी है,
किनारे पर |
और उसने धीमी कर ली है,
अपनी गति फिर से |
चूर हो गये हैं,
उसके ‘गुमान’ और ‘स्वाभिमान’ दोनो ही |
अब जाने क्यों,
किनारा पास देखकर भी,
उसे जाने को मन नही करता |
जी में आता है की वो मंडराता रहे,
अकेला ही,
दूर-दूर तक फैले समुद्र में |
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मैं और मेरा एकाकीपन,
सोच रहे हैं, कुछ मिलकर शायद
और मेरी अँगुलियाँ अनायास ही,
मेरी इन्द्रियों से मुक्त होकर,
कुछ उकेर रही हैं कागज पर ।
कुछ आकृति सी उभर रही है-
मानव सदृश ।
अरे ये तो मैं हूँ !
मैं कुछ मुस्कुराता हूँ,
अपनी तस्वीर को देखकर,
फ़िर अगले ही पल,
एक अजीब सी शिकन ।
ये क्या,
कभी उभरने की उमंग,
कभी सिमटने की घुटन ।
एक ही प्रवृति पर दोहरे एहसास क्यों ?
पता नहीं,
ये रेखाएँ मुझे बना रही हैं,
या मैं इन रेखाओं को ?
मैं एकाकीपन खोजता हूँ,
या एकाकीपन मुझे खोज लेती है ?
फ़िर अनायास ही कभी उभर आता हूँ मैं,
अपने-आप को सिमटता देखकर ।
व्याकुलता-
अपने-आप से भागने की,
फ़िर अगले ही पल व्यग्रता-
अपने-आप को पाने की,
शायद कोशिश,
अकेले जीने की,
अकेलेपन से भागकर ।
————“सर्जना” – २६ वें अंक में प्रकाशित————-
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आँसू आएँगे, उदासी आएगी या मौन आएगा;
देखता हूँ मेरे दिल, आज तुझको रुलाने कौन आएगा ? – राजेश ‘आर्य’
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केंचुली देखी है कभी,
कभी महसूस किया है उसके दर्द को ।
वो जब सर्प के आगोश में,
लिपटी हुई तन पर,
कुदती मचलती साथ उसके,
इतराती है अपने भाग्य पर ।
और फ़िर एक दिन अचानक,
सर्प निकल पड़ता है,
उसे छोड़्कर हमेशा के लिये,
किसी नयेपन की तलाश में,
और वो केंचुली,
पड़ी रोती रह्ती है कहीं,
अपनी निर्जीविता से विवश होकर ।
———————————–
मैं नहीं बनना चाहता केंचुली,
मुझे नहीं जाना किसी के आगोश में,
मुझे नहीं इतराना किसी को छूकर ।
कुछ पलों के लिये,
जिसे अपने तन से लगाया,
जिसे अपने मन से लगाया,
एक दिन वही मुझे छोड़कर,
हमेशा के लिये ……।
नहीं, नहीं,
ये दर्द असहनीय है मेरे लिये ।
मैं नहीं बनना चाहता केंचुली ।
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बचपन में सिखाया था
नानी ने,
दोनों हाथों की अंगुलियों के बीच
धागे को फँसाकर
खटिया बुनना ।
सोचता था, उस वक्त
जब बड़ा होऊँगा
तो बड़ी होंगी अंगुलियाँ भी ।
फिर बनाऊँगा
एक बड़ी-सी खाट
और उसपर
किसी ‘अपने’ को बिठाकर
झूलाऊँगा खूब देर ,
जब तक कि
सो ना जाये वो
चैन की नींद
अपनी सभी चिन्ताओं को भूलकर।
—————
अब बैठा रहता हूँ घंटों
अंगुलियों के बीच खाट बुनकर,
किसी की आस में,
कि कोई तो आयेगा
झूला झूलने।
पर कोई नहीं आता,
शायद सभी आदी हो गये हैं
गद्देदार बिस्तर के ।
—————-
नानी तूने सिखाया क्यों नहीं मुझे,
गद्देदार बिस्तर बनाना ।
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कौन समझ सकता है
या समझना चाहता है
इस उन्माद में छुपी चुप्पी को
या चुप्पी में छुपे कराह को
मैं या मेरी कविता?
पर,मैं यह भी कैसे मान लूँ
कि कविता मेरी हितैषी है
जबकी उसी ने सिखाया है मुझे
चुप्पियों में जीना |
शायद कभी किसी अपने ही दर्द से आहत हो
मैंने कोशिश की थी कराहने की
कि तभी उसी कविता ने
मेरी चीखों से प्राण छीन लिये
कहा-
‘क्यों चाह्ते हो,
अपने दर्द की चीखें सुनाकर
किसी अपने को दुखी करना
रोको इन व्यर्थ आँसूओं को,
ये उर्ज़ा हैं
तुम्हारे अन्तः की
जो उभरेंगी तुम्हारी स्याही से,
किसी पन्ने पर
मेरी तरह |’
और तब से मैं,
कभी चीखता नहीं,
किसी दर्द से
बस चुप्पी साधे
लिखता जाता हूँ
और सीखता जाता हूँ,
जिन्दगी के नये आयाम |
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आज फिर
क्यों विवश हूं मैं
उन्हीं यादों में जीने के लिये ?
क्यों बदलते परिवेश,
बदलते मौसम , छोड़ जाते हैं
एक भीड़-भरा अकेलापन
एक अशांत शांति ?
क्यों इन्द्रियों पर एक छोटा-सा प्रभाव भी
प्रभावित कर जाती है
मेरे मन को,मेरी आत्मा को
और व्याकुल होकर मन
ढूँढ्ने लगता है,
अपने आस-पास
कोइ अपना-सा ?
कि काश!आज पास होती
उनके हाथों की सहलाहट
मिटाने को
मेरा दर्द , मेरी आत्मा का दर्द |
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